Sunday, January 19, 2025

यशवंतपुर से अमेठी की रेलयात्रा | Yeshwanthpur Se Amethi Ki Railyatra

यशवंतपुर से अमेठी की रेलयात्रा | Yeshwanthpur Se Amethi Ki Railyatra

Amethi-Waale-Bhaisahab-Pratapgarh-Train-Memories

मुझे याद है, आज से करीब 9 साल पहले मैं बेंगलुरु से अपने गांव जा रहा था। मुझे गांव से कुछ कागजात बनवाने थे। उन दिनों कंफर्म टिकट मिलना भी बहुत मुश्किल होता था। मेरा भी टिकट वेटिंग था जो कि धीरे-धीरे आर ए सी में बदल गया था।


ट्रेन बेंगलुरु स्टेशन से चली, और मेरे आसपास की लगभग सभी सीटें खाली थी। मैं यही मना रहा था कि काश कोई एक-आधी सीट खाली ही रह जाए जिस पर सफ़र करके मैं अपने गांव पहुंच जाऊं। आखिर 40 घंटों का सफर था। मगर यशवंतपुर स्टेशन आते ही पूरा डिब्बा यात्रियों से भर गया। मैं भी अपनी आर ए सी सीट पर एक कोने में बैठ गया।

उन दिनों व्हाट्सएप तो नहीं हुआ करता था परंतु दिन में ढाई सौ SMS फ्री मिला करते थे जिनसे हम अपने दोस्तों से चैटिंग किया करते थे। चैटिंग करते-करते शाम होते होते फोन की बैटरी जवाब दे गई। और अब मैं अपने साथी यात्रियों का मुंह ताकने लगा।

उनमें से एक ने मुझसे पूछा, आप कहां तक जाएंगे? मैंने उत्तर दिया, "जी प्रतापगढ़ तक।"

यह सुनकर वह मुझसे बोला, "अच्छा तो मतलब हम आपसे पहले ही उतर जाएंगे! हमें तो अमेठी तक जाना है।"

यह सुनते ही पास बैठे दो लोग, जो दोस्त भी थे, बोल पड़े, "अरे भैया हम दोनों तो आप से भी पहले उतर जाएंगे, हमें इलाहाबाद जाना है।"

अब क्योंकि हम सभी दूसरे को थोड़ा बहुत जान गए थे तो सब ने दूसरे के नाम पूछे। अब नाम पूछ ही लिया था, फिर एक दूसरे से उनका कामकाज भी पूछा। कुल मिलाकर बात यह है कि रात होते-होते हम सब एक दूसरे को अच्छे से जान गए थे।

शाम के लगभग 8:00 बज गए थे तो मैंने अपना टिफिन खोल लिया। यह देखकर बाकी यात्रियों ने भी धीरे धीरे अपना खाने का सामान निकाल लिया तथा सभी का रात का खाना हो गया।

थोड़ी ही देर में वह जो दो दोस्त थे उनमें से एक बोल पड़ा, "ताश के पत्ते निकालूं क्या?" यह सुनकर दूसरा दोस्त बोला, "अरे अकेले ही खेलेगा क्या?"

पहला दोस्त बोला, "चल तू और मैं मिलकर तीन पत्ती खेल लेते हैं।" दूसरा दोस्त बोला, "तीन पत्ती में मजा नहीं आएगा दूसरा कुछ खेल लेते हैं।"

अब पहले दोस्त ने अमेठी वाले भाई साहब से पूछा, "आपको ताश खेलना आता है?" अमेठी वाले भाई साहब ने कहा, "ना बाबा ना, यह सब जुआ है, हम इस से दूर ही रहते हैं।" यह सुनकर मेरे चेहरे पर हल्की सी हंसी आ गई।

मुझे मुस्कुराता देख पहले वाले दोस्त ने मुझसे पूछा, "आप खेलते हैं?" मैंने कहा, "जी थोड़ा बहुत।"

अब उन्होंने मुझसे पूछा, "तीन पत्ती खेलेंगे?" मैंने कहा, "मुझे तीन पत्ती तो नहीं आता पर मैं 29 बहुत पसंद करता हूं।"

29 का नाम सुनते ही वह चौंक गए और बोले, "अरे वाह! यह तो हमें भी बहुत पसंद है।" यह सुनते ही वह दोनों दोस्त और मैं खुशी से एक दूसरे को देखने लगे। परंतु यह खुशी ज्यादा ज्यादा देर तक नहीं चली क्योंकि हमें तुरंत याद आया कि यह खेल खेलने के लिए कम से कम 4 लोग चाहिए।

अब हम तीनों ने मिलकर अमेठी वाले भाई साहब की तरफ देखा। हम तीनों को उनकी तरफ देखते हुए देखकर अमेठी वाले भाई साहब थोड़ा सा सकपका गए। वे समझ गए थे कि अब हम सब मिलकर उन्हें भी खेल में हमारा साथ देने के लिए कहेंगे। और हुआ भी यही हमने कौन से खेलने का आग्रह किया। वे बोले, "अरे भैया मुझे खेलना नहीं आता।" हमने कहा, "हम सिखा देंगे", हमने उन्हें समझाया कि भाई साहब यहां हम कोई पैसा थोड़ी लगाने वाले हैं। बहुत ना-नुकूर करने के बाद वे मान गए और बोले कि, "मैं केवल एक ही मैच खेलूंगा।" बस हमें तो यही सुनना था। अपना काम बन गया था।

चार लोगों वाला '29 नामक' गेम चालू हुआ। दो टीमें बनाई गई। वह दोनों दोस्त एक टीम में, मैं और अमेठी वाले भाई साहब एक टीम में। हमने किसी तरीके से रो-पीट के पहला मैच उनको सिखाते सिखाते पूरा कर दिया। अमेठी वाले भाई साहब और मेरी टीम जीत गई थी। यह देख उन्हें अच्छा लगा। तभी मैंने कहा, "चलो एक मैच और।" हम तीन लोग तो पहले ही राज़ी थे और हमने अमेठी वाले भाई साहब को भी एक बार फिर से राजी कर लिया।

अगले मैच में अमेठी वाले भाई साहब को खेल की थोड़ी और समझ हो गई थी इसलिए उन्होंने एक-दो चालें बिना मुझसे पूछे ही चल दीं। अब जाहिर है कि वे माहिर खिलाड़ी तो थे नहीं और उनके अपने अनुसार चाल चलने से हमारी टीम यह मैच हार गई।

हार का सामना करते ही इससे पहले कि हम में से कोई कहता, "एक मैच और", अमेठी वाले भाई साहब बोल पड़े, "एक बार और खेलूंगा।"

यह देखकर हम तीनों चौंक गए और एक दूसरे की तरफ आश्चर्य भरी नजरों से देखने लगे। फिर अचानक तीनों जोर से चिल्लाए और कहा "एक मैच और।" फिर हमने एक मैच और खेला। धीरे-धीरे अमेठी वाले भाई साहब खेलने में एकदम पक्के हो गए और हमने दो मैच और खेले।

काफी देर के बाद हमें एहसास हुआ कि हमारे डिब्बे के बाकी लोग बत्तियां बुझा कर सो चुके हैं। यह देखकर हम ने भी सोचा कि अब सो जाना चाहिए वर्ना बाकी सह यात्रियों को तकलीफ होगी। फिर हम सब अपनी-अपनी बर्थ पर सो गए। बातें करते-करते हम लोग काफी थक गए थे इसलिए नींद भी जल्दी आ गई।

सुबह हम सभी बारी बारी से उठते गए, लेकिन अमेठी वाले भाई साहब अभी सो ही रहे थे। नौ बज चुके थे। तभी कुछ देर बाद अमेठी वाले भाई साहब उठ गए और हमें पहले से ही उठे हुए देख कर बोले, “अरे भाई, आप लोग तो हम से पहले ही उठ गए।” फिर वे आंखें मीचते हुए उठ बैठे और पानी की बोतल खोलते हुए हम तीनों से बोले, “आप लोगों ने नाश्ता कर लिया?”

हमने कहा, “अभी तो नहीं, बस अब करेंगे थोड़ी देर में।” इस पर अमेठी वाले भाई साहब बोले, “मैं अभी हाथ मुंह धो कर आता हूं, फिर साथ में नाश्ता कर लेंगे और फिर ताश खेलेंगे। आज पत्ते में बांटूंगा।” यह सुनते ही हम लोग एकदम चौंक गए। मैंने कहा, “वाह भाई साहब! क्या बात कही आपने, दिल खुश कर दिया। अब तो पूरा दिन ताश खेलते खेलते, मज़े में गुज़र जाएगा।

फिर अमेठी वाले भाई साहब हाथ मुंह धोने चले गए। हम तीनों आपस में बातें करने लगे। पहले दोस्त ने कहा कि, “लगता है अमेठी वाले भाई साहब को अब ताश का चस्का लग गया है। मुझे तो विश्वास ही नहीं होता कि उन्होंने खुद ही सुबह उठते ही ताश खेलने की इच्छा जाहिर की।” दूसरे दोस्त ने कहा, “लड़का बिगड़ गया भाई, लड़का बिगड़ गया।” यह सुनकर हम तीनों हंसने लगे।

इसके बाद हम चारों ने एक साथ नाश्ता किया और फिर पूरा दिन ताश खेलते-खेलते ही गुजर गया। सच में क्या गजब का गेम है 29. लगभग पंद्रह-सोलह मैच खेलने के बाद अब रात हो चली थी। 9:30 बज गए थे। अब हम सब ने एक आखरी मैच खेल के 10:30 बजे अपने ताश टूर्नामेंट को विराम दिया। अब हम सब रात का खाना खाते हुए एक दूसरे से बातें करने लगे। बातों बातों में पता चला कि इलाहाबाद सुबह को 6:00 बजे आ जाएगा और वह दोनों दोस्त एक साथ वहीं उतर जाएंगे। बस फिर धीरे-धीरे और समय गुजर गया और हम लोग सो गए। अगले दिन सुबह उठे तो देखा दोनों दोस्तों की सीट खाली है, वे दोनों सुबह को ही अपने स्टेशन पर उतर गए थे। दुर्भाग्य ऐसा कि हम लोग एक दूसरे का फोन नंबर भी नहीं ले पाए।

अब बचे थे सिर्फ मैं और अमेठी वाले भाई साहब। हम दोनों बातें करने लगे और अपने कल के ताश के खेल की बातें याद लगे। फिर हमने एक दूसरे से उनके घर परिवार के बारे में और बातें की। अब थोड़ी देर में मेरा स्टेशन प्रतापगढ़ आने वाला था इसीलिए मैंने अपना सामान जुटाना शुरू किया। मुझे अपना सामान एक तरफ रखते देख अमेठी वाले भाई साहब ने मुझसे मेरा फोन नंबर लिया और मुझे भी अपना फोन नंबर दिया।

थोड़ी देर में मेरा स्टेशन प्रतापगढ़ आ गया। “यहां ट्रेन बस 2 मिनट के लिए रुकेगी”, मैंने भाई साहब से कहा। उन्होंने मुझसे कहा, “कोई बात नहीं भइया, आप चलिए, इसके बाद अगला स्टेशन मेरा है, अमेठी। हमारा भी उतरने का टाइम आने वाला है। और अब तो पहचान हो ही गई है। हम दोनो के जिले तो एक दूसरे के पड़ोसी ही हैं, भगवान ने चाहा तो कभी न कभी दोबारा मुलाकात अवश्य होगी।”

बस फिर क्या था, गाड़ी प्लेटफार्म पर रुकते ही मैं ट्रेन से उतर गया। हम दोनों ने एक दूसरे को हाथ जोड़कर अपने अपने गांव आने का निमंत्रण देते हुए नमस्ते मुद्रा में अलविदा कहा। मैं स्टेशन पर उसी जगह खड़े रहकर ट्रेन को देखता रहा, जब तक वह मेरी नज़रों से ओझल न हो गई।

वह बाकी दोनों दोस्त तो नहीं, लेकिन वह अमेठी वाले भाई साहब आज तक हमारे संपर्क में हैं। आज भी हम जब कभी फोन पर बात करते हैं तो उस ट्रेन की अविस्मरणीय यात्रा को याद करके कुछ ठहाके लगा लेते हैं।


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